Skip to main content

कर्ण और कृष्ण का संवाद - रामधारी सिंह 'दिनकर'

Following is excerpt from poem Rashmirathi written by Ram dhari singh dinkar. Karna reply to Krishna when he told story of his birth and ask him to join pandava side.

सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
क्षण एक तनिक गंभीर हुआ, 
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
जो कुछ आपने बताया है 
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा

 मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
उन्मन यह सोचा करता हूँ, 
कैसी होगी वह माँ कराल,
निज तन से जो शिशु को निकाल 
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?

 सेवती मास दस तक जिसको,
पालती उदर में रख जिसको, 
जीवन का अंश खिलाती है,
अन्तर का रुधिर पिलाती है 
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं

 हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
इस पर न अधिक कुछ भी कहिये 
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
जिस माँ ने मेरा किया जनन 
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी

 पत्थर समान उसका हिय था,
सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था 
गोदी में आग लगा कर के,
मेरा कुल-वंश छिपा कर के 
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया

 माँ का पय भी न पीया मैंने,
उलटे अभिशाप लिया मैंने 
वह तो यशस्विनी बनी रही,
सबकी भौ मुझ पर तनी रही 
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता

 मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
राजाओं के सम्मुख मलीन, 
जब रोज अनादर पाता था,
कह 'शूद्र' पुकारा जाता था 
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं

 मैं सूत-वंश में पलता था,
अपमान अनल में जलता था, 
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
माँ की ममता पर हुई वृथा 
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी

 पा पाँच तनय फूली फूली,
दिन-रात बड़े सुख में भूली 
कुन्ती गौरव में चूर रही,
मुझ पतित पुत्र से दूर रही 
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?

 क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
सुत के धन धाम गंवाने पर 
या महानाश के छाने पर,
अथवा मन के घबराने पर 
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?

 कुन्ती जिस भय से भरी रही,
तज मुझे दूर हट खड़ी रही 
वह पाप अभी भी है मुझमें,
वह शाप अभी भी है मुझमें 
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?

 सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ? 
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
मेरा सुख या पांडव की जय? 
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?

 मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
सब लोग हुए हित के कामी 
पर ऐसा भी था एक समय,
जब यह समाज निष्ठुर निर्दय 
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था

 उस समय सुअंक लगा कर के,
अंचल के तले छिपा कर के 
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
ताड़ना-ताप लेती थी हर? 
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?

 हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
सच है की झूठ मन में गुनिये 
धूलों में मैं था पडा हुआ,
किसका सनेह पा बड़ा हुआ? 
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?

 अपना विकास अवरुद्ध देख,
सारे समाज को क्रुद्ध देख 
भीतर जब टूट चुका था मन,
आ गया अचानक दुर्योधन 
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए

 कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
राधा ने माँ का कर्म किया 
पर कहते जिसे असल जीवन,
देने आया वह दुर्योधन 
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है

 राजा रंक से बना कर के,
यश, मान, मुकुट पहना कर के 
बांहों में मुझे उठा कर के,
सामने जगत के ला करके 
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने

 है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
जानते सत्य यह सूर्य-सोम 
तन मन धन दुर्योधन का है,
यह जीवन दुर्योधन का है 
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा

 सच है मेरी है आस उसे,
मुझ पर अटूट विश्वास उसे 
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
ठाना है उसने महासमर 
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?

 रह साथ सदा खेला खाया,
सौभाग्य-सुयश उससे पाया 
अब जब विपत्ति आने को है,
घनघोर प्रलय छाने को है 
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा

 कुन्ती का मैं भी एक तनय,
जिसको होगा इसका प्रत्यय 
संसार मुझे धिक्कारेगा,
मन में वह यही विचारेगा 
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला

 मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
अर्जुन पर भी होगा कलंक 
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
अर्जुन ने अद्भुत नीति गही 
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया

 कोई भी कहीं न चूकेगा,
सारा जग मुझ पर थूकेगा 
तप त्याग शील, जप योग दान,
मेरे होंगे मिट्टी समान 
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?

 जो आज आप कह रहे आर्य,
कुन्ती के मुख से कृपाचार्य 
सुन वही हुए लज्जित होते,
हम क्यों रण को सज्जित होते 
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को

 लेकिन नौका तट छोड़ चली,
कुछ पता नहीं किस ओर चली 
यह बीच नदी की धारा है,
सूझता न कूल-किनारा है 
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे

 धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ? 
कुल की पोशाक पहन कर के,
सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के? 
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?

 सिर पर कुलीनता का टीका,
भीतर जीवन का रस फीका 
अपना न नाम जो ले सकते,
परिचय न तेज से दे सकते 
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं

 विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
चलता ना छत्र पुरखों का धर. 
अपना बल-तेज जगाता है,
सम्मान जगत से पाता है. 
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं

 कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
पुरुषार्थ एक बस धन मेरा. 
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
मैने हिम्मत से काम लिया 
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है.

 लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
अपने प्रण से विचरूँगा क्या? 
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
या पार्थ हाथ कर्ण का मरण, 
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.

 मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
शीतल हो जाती है काया, 
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
जो पाकर भी ऐसा तरुवर, 
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है.

 जिस नर की बाह गही मैने,
जिस तरु की छाँह गहि मैने, 
उस पर न वार चलने दूँगा,
कैसे कुठार चलने दूँगा, 
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,

 मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
कब उसे तोल सकता है धन? 
धरती की तो है क्या बिसात?
आ जाय अगर बैकुंठ हाथ. 
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.

 सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
उस दिन के लिए मचलता हूँ, 
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर. 
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?

 सम्राट बनेंगे धर्मराज,
या पाएगा कुरूरज ताज, 
लड़ना भर मेरा कम रहा,
दुर्योधन का संग्राम रहा, 
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.

 कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ? 
क्या नहीं आपने भी जाना?
मुझको न आज तक पहचाना? 
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.

 धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं. 
भुजबल से कर संसार विजय,
अगणित समृद्धियों का सन्चय, 
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को.

 वैभव विलास की चाह नहीं,
अपनी कोई परवाह नहीं, 
बस यही चाहता हूँ केवल,
दान की देव सरिता निर्मल, 
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा. 

 तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
पाता क्या नर कर प्राप्त विभव? 
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास, 
पर वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नही ले जाना है.

 मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
कंचन का भार न ढोते हैं, 
पाते हैं धन बिखराने को,
लाते हैं रतन लुटाने को, 
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं.

 प्रासादों के कनकाभ शिखर,
होते कबूतरों के ही घर, 
महलों में गरुड़ ना होता है,
कंचन पर कभी न सोता है. 
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.

 होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
मानव होता निज तप क्षीण, 
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
करते मनुष्य का तेज हरण. 
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.

 चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
नर भले बने सुमधुर कोमल, 
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
आताप अंधड़ में जिए बिना, 
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.

 उड़ते जो झंझावतों में,
पीते सो वारी प्रपातो में, 
सारा आकाश अयन जिनका,
विषधर भुजंग भोजन जिनका, 
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.

 मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
सिर पर ना चाहिए मुझे ताज. 
दुर्योधन पर है विपद घोर,
सकता न किसी विधि उसे छोड़, 
रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको.

 संग्राम सिंधु लहराता है,
सामने प्रलय घहराता है, 
रह रह कर भुजा फड़कती है,
बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं, 
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.

 अब देर नही कीजै केशव,
अवसेर नही कीजै केशव. 
धनु की डोरी तन जाने दें,
संग्राम तुरत ठन जाने दें, 
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.

 हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
मेरी यह जन्मकथा गोपन, 
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
जैसे हो इसे छिपा रहिए, 
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.

 साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
सारी संपत्ति मुझे देंगे. 
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
दुर्योधन को दे जाऊँगा. 
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.

 अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य. 
रण मे ही अब दर्शन होंगे,
शार से चरण:स्पर्शन होंगे. 
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."

रथ से रधेय उतार आया,
हरि के मन मे विस्मय छाया, 
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
तुझसा न मित्र कोई अनन्य, 
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."

Comments

  1. Dinkar ji ko koti koti pranam....
    Itne saare bhaav wo bhi kavita ke jariye...waah waah

    ReplyDelete
  2. Kard kis isthithi ko guth muth ki btaataa hai


    ReplyDelete
  3. जय श्री कृष्णा

    ReplyDelete
  4. Absolutely karan is very very great person.

    ReplyDelete
  5. Jay shree krishna.

    ReplyDelete
  6. Karn was a really great man

    ReplyDelete
  7. अच्छी रचना हैं दिनकर जी का

    ReplyDelete
  8. Rep your club in style with the standout Wrexham AFC Jacket . Designed for ultimate comfort and bold fan pride. Available now at Arsenal Jackets.








    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

रश्मिरथी ( सप्तम सर्ग ): कर्ण वध - रामधारी सिंह 'दिनकर'

1 निशा बीती, गगन का रूप दमका, किनारे पर किसी का चीर चमका। क्षितिज के पास लाली छा रही है, अतल से कौन ऊपर आ रही है ? संभाले शीश पर आलोक-मंडल दिशाओं में उड़ाती ज्योतिरंचल, किरण में स्निग्ध आतप फेंकती-सी, शिशिर कम्पित द्रुमों को सेंकती-सी, खगों का स्पर्श से कर पंख-मोचन कुसुम के पोंछती हिम-सिक्त लोचन, दिवस की स्वामिनी आई गगन में, उडा कुंकुम, जगा जीवन भुवन में । मगर, नर बुद्धि-मद से चूर होकर, अलग बैठा हुआ है दूर होकर, उषा पोंछे भला फिर आँख कैसे ? करे उन्मुक्त मन की पाँख कैसे ? मनुज विभ्राट् ज्ञानी हो चुका है, कुतुक का उत्स पानी हो चुका है, प्रकृति में कौन वह उत्साह खोजे ? सितारों के हृदय में राह खोजे ? विभा नर को नहीं भरमायगी यह है ? मनस्वी को कहाँ ले जायगी यह ? कभी मिलता नहीं आराम इसको, न छेड़ो, है अनेकों काम इसको । महाभारत मही पर चल रहा है, भुवन का भाग्य रण में जल रहा है। मनुज ललकारता फिरता मनुज को, मनुज ही मारता फिरता मनुज को । पुरुष की बुद्धि गौरव खो चुकी है, सहेली सर्पिणी की हो चुकी है, न छोड़ेगी किसी अपकर्म को वह, निगल ही जायगी सद्धर्म को वह । मरे अभिमन्यु अथवा भीष्म टूटें, पिता के प्राण...

मोची

मुंबई स्थित मलाड स्टेशन के बाहर बैठने वाला एक मोची मेरे लिए पिछले 4 महीनों से कौतूहल का विषय बना हुआ था। 4 माह पूर्व मैंने मलाड स्थित एक कंपनी में नौकरी ज्वाइन की थी, यद्यपि मेरी पिछली नौकरी की तुलना में वेतन यहां कुछ कम था परंतु महत्वपूर्ण बात यह थी कि यह मेरे निवास स्थान बोरीवली से बहुत ही नज़दीक था जिसकी वजह से मुझे सुबह एवं शाम दोनों वक्त स्वयं के लिए समय मिल जाता था। मेरी अन्य आदतों में एक बहुत ही गैर जरूरी आदत यह रही है कि मैं रोज ऑफिस जाने से पहले अपने जूते मोची से पॉलिश करा कर जाता रहा हूं। ऑफिस का वक्त 9:30 बजे प्रारंभ होता था और मैं सामान्यता 9:15 बजे मलाड स्टेशन पर उतर कर अपने जूते पॉलिश कराने के पश्चात 9:25 बजे तक ऑफिस पहुंच जाया करता था। नई नौकरी ज्वाइन किए हुए करीब 1 हफ्ते का वक्त गुजरा होगा मैं रोज की तरह स्टेशन से उतर कर जिस जगह कतार में 5-6 मोची बैठे रहते थे उस और अपने जूते पॉलिश कराने के उद्देश्य से गया। आज मैं समय से थोड़ा पहले निकला था, वक्त करीब 9:00 बज रहे थे मैंने देखा की बाकी सभी मोची व्यस्त थे एवं एक थोड़ा अलग सा दिखने वाला मोची अभी अभी तुरंत ही आया था। उसे ख...

WHO AM I

I am the ring around Saturn spinning words as particles of ice and dust with the power to transcend I am the original chosen to be right here right now transmitting verbal frequencies through speaking my thoughts into existence I am the heir of omnipotence, born with a direct connection to profound abundance The one whose words will age, yet still have substance; since there are no boundaries attached to my pen I am constant energy Translating personal experience into imagery Vulnerable to tyranny, yet I continue attempting to share some truth through this abstract language of poetry I am the core I am that I am more I am the Divine Presence that is the Source of my rewards I am the green you get when you mix too much yellow with the blue That shade of gold you get when the sun resides into darkness and when it ascends in the dawn burning dew I am the transition between the third and fourth dimension of time; the love you feel when you realize how it feels I am the poem th...

शब्द हैं विचार हैं

शब्द हैं विचार हैं । शब्दों में विचार है, या विचारों में शब्द है । कभी विचार हैं तो शब्द नहीं, और कभी शब्द हैं तो विचार नहीं । न विचार सदा रहे बंधे, शब्दों के जाल में । न शब्द सर्वदा रहे, विचारों के प्रभाव में । शब्द जो निशब्द है, विचार सब व्यर्थ है । विचार जो भ्रांत है, शब्द सब निरर्थ हैं । उपयुक्त विचार अयुक्त शब्द, युद्ध का प्रारब्ध है । कुटिल विचार मृदु शब्द, विध्वंस का आरम्भ है । शब्द व विचार के इस युद्ध को विराम देकर । विचारों के सागर से शब्दों के मोती निकालकर , उन मोतियों को विचारों के धागों में पिरोने वाला । जिसने इनका निष्कलंक संतुलन है पाया, वही उत्तम मनुष्य है कहलाया ।